श्रीनु……

 

श्रीनु……

जीवन में बहुत सी ऐसी घटना होती है  जो हमेशा के लिए यादगार होती हैं, जीवन में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो हमारे अपने रिश्तेदार, दोस्त  न होकर  भी हमें वो याद रहते  हैं। आप उन्हें जब भी याद करते हैं तो चेहरे पर एक मुश्कान आ जाती है । ऐसे ही एक व्यक्ति हैं श्रीनु। मैं उसके परिवार के बारे में कुछ नहीं जानती  । मुझे बस इतना पता है कि वह एक तेलुगु लड़का है, में ये भी नहीं जानती की अब वो कहाँ है क्या कर रहा है। अब आपके मन में ये सवाल उठना स्वभाबिक है की अगर में उसे जानती नहीं तो उसके बारे में क्यों लिख रही हूँ।

मैं 2004 में श्रीनु   से मिली थी  । मुझे अच्छी तरह से याद है कि बारिश का दिन था। मैं अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन (आई एन जी ओ ) के कुछ असाइनमेंट में थी , जिसमें मुझे  कोरापुट के आदिवासी इलाकों में जाकर , ग्राउंड जीरो में उनके द्वारा शुरू की गई ग्राम नियोजन परियोजना के बारे में लिखना था ।  मैं भुवनेश्वर से हीराखंड एक्सप्रेस में कोरापुट के लिए  तीन दिन की यात्रा पर निकली । ट्रेन रायगड़ा में तो सुबह होने से पहले ४ बजे पहुँच जाती है पर कोरापुट पहुँचते पहुँचते कभी कभी दिन के बारह बज जातेहैं। क्यूंकि पहाड़ो के बिच सिंगल ट्रैक में ट्रेन चलने के कारण ट्रेन बहुत धीमी गति से चलती है और कोरापुट पहुंचते पहुँचते दिन के ११ /१२ बज जाता है।  आधा दिन ऐसे ही  ख़तम हो चूका होता है।

 इसलिए जब भी मैं कोरापुट शूटिंग के लिए जाती  हूं, तो हम  ज्यादातर समय रायगडा में उतरके कार से कोरापुट जाना पसंद करते हैं ,क्यों की इस से हम सुबह साढ़े आठ बजे तक पहुँच जाते हैं। कभी-कभी हम विजयनगरम में रात के  2 बजे उतरके  कार से कोरापुट जाते हैं। इस से  भी सुबह 8 बजे तक पहुँच जाते है। इसलिए इस बार भी मेरा यही प्लान था क्योंकि मेरे पास सिर्फ तीन दिन थे और मुझे कम से कम 20 गांवों का दौरा करना था। मैं ट्रेन में बैठकर ये सोच रही  थी  कि क्या सुबह रायगडा में उतरकर  कार से से जाना  ठीक रहेगा ? क्योंकि इस बार मैं अकेली  जा रही  थी , मेरा कैमरामैन मेरे साथ नहीं गया था ।तभी लाला का फोन आता है। लाला वहां का कम्युनिकेशन ऑफिसर था और मेरा अच्छा दोस्त भी है। उसी के कहने पर में लिखने को राजी हुई थी।

 लाला ने मुझे फोन पर बताया कि उन्होंने ट्रैवल एजेंसी को कार रायगडा भेजने के लिए कहा है   ए.सी के कोच से  बाहर कुछ भी स्पस्ट रूप से  दिखाई नहीं दे रहा था , लेकिन यह स्पष्ट था कि बाहर बारिश हो रही थी।सुबह करीब  चार बजकर पंदर मिनिट पर ट्रेन रायगड़ा के स्टेशन पर रुकी। में अपने लगेज लेकर स्टेशन पर उतरी। स्टेशन पर चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा था। सायद बारिश के चलते पावर कट हुआ था। में ड्राइवर को फ़ोन करने ही वाली थी की एक बंदा मेरे सामने आकर खड़ा हुआ। बड़े अदब के साथ पूछा मैडम आप भुबनेश्वर से आयी हैं ?मैं श्रीनु  हूँ ,आपको कोरापुट  ले जाने आया हूँ? श्रीनु  ने जल्दी से मेरा लगेज उठाया और गाड़ी की तरफ बढ़ने लगा।अपने बोलेरो पर मेरा सामान रख कर मुझे पीछे की सीट पर बैठने को कहा।

 मैं जाकर पीछे की सीट पर बैठ गयी मैंने उससे पूछा कि हम वहाँ कब पहुँचेंगे। "दो से ढाई घंटे लगेंगे," उसने दबी जबान से  कहा। "अँधेरी रात के साथ  मूसलाधार बारिश हो रही थी और मेरे मन में एक अनजाना डर था एक पत्रकार होने के नाते  रात के समय भी न्यूज़ कवर करने के लिए अलग-अलग जगहों पर जाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी पर जबकि में एक टीवी पत्रकार हूँ मेरे साथ हमेशा से एक कैमरामैन रहता है। पर इस बार में अकेली थी और एक अनजान ड्राइवर के साथ पहाड़ जंगल से घिरे रस्ते पर ट्रेवल कर रहीथी, तो थोड़ा डर लगना लाजमी था। जो भी हो  हम काशीपुर रोड पर कोरापुट के लिए निकल पड़े।ट्रेन में रात भर जागने के कारण रस्ते में कहाँ मेरी आँख लग गयी मुझे पता हि नहीं चला। अचानक कार  में जोर से ब्रेक लगने से मेरी आँख खुली। उसने गाडी में इतनी जोर से ब्रेक लगाया था की सामने की सीट से मेरा माथा जा टकराया। में गुस्से से आग बबूला हुई। " तुम्हे गाडी चलानी  नहीं आती  क्या ?इतने जोर से कोई ब्रेक लगता है क्या" ?उसने कोई जबाब नहीं दिआ सिर्फ मुझे इसारा कर के सामने देखने को कहा। अँधेरे के कारन कुछ दिख ही नहीं रहा था। उसने जब गाड़ी स्टार्ट की तो हेड लाइट से मैंने देखा की आगे पानी ही पानी हैं। नदी में बाढ़ आईथी इस लिए पुल के ऊपर से क़रीब पांच फिट पानी चल रहा था। श्रीनु  ने जल्द ही गाड़ी घुमाई और बड़े सांत स्वर में बोला मेडम हम इस रास्ते से नहीं जा सकते बाढ़ का पानी कब कम होगा पता नहीं,इस लिए हमें दूसरे रस्ते से जाना होगा। मेरे जबाब का इंतजार किए बिना उसने गाडी को दूसरे रस्ते पर ले लिया।

मेरे मन में बहुत सारे सवाल थे, जैसे कौन से रस्ते से वो मुझे लेकर जायेगा?वो रास्ता कितना सुरक्षित होगा ? श्रीनु  लेकिन चुपचाप गाड़ी चला रहा था। बारिश कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

श्रीनु  ने मुझ से माफ़ी भी मांगी इतनी जोर से ब्रेक मारने के लिए, साथ मैं ये भी बताया की अगर उसने ऐसा नहीं किया होता,अगर कुछ इंच गाडी आगे होती तो हम बाढ़  में बह जाते।पहाड़ी जगह पर बाढ़ इसी तरह से अचानक आती है। मैं भगबान के साथ उसका भी सुक्रिया अदा कर रही थी, क्यों की उसकी बजह से ही हम दोनों बच गए थे। सुबह नहीं हुई थी । मुझे जब पता चला की हम पारबती पुरम होते हुए कोरापुट जा रहे हैं तो मुझे और भी डर लगने लगा। क्यों की मुझे पता था की इस इलाके में माओबादी बहुत ही सक्रिय हैं। कुछ ही महीने पहले यानी फरबरी में ही माओबादीओं ने कोरापुट में हमला किया था। इस हमले में उन्होंने ने सहर को चारों तरफ से घेर लिया था और बहुत सारे पुलिस के हथिआर उठाकर ले गए थे। इस घटना को कवर करने में अपने न्यूज़ एजेंसी के तरफ से कोरापुट भी आईथी ।

मैं एक अज्ञात भय से भयभीत थी, लेकिन फिर भी कोशिश कर रही थी की मेरा डर श्रीनु को दिखाई न दे। अपने डर से काबू पाने को मैंने श्रीनु  के साथ बातचीत सुरु की। "श्रीनु, तुम  कितने साल से गाड़ी चला रहे हो ? क्या तुम यहाँ के सारे रास्तों से वाकिफ हो ? ऐसे कई सबाल में ने एक ही साँस में उस से पूछ लिया। बो मेरे हर सवाल का जबाब दे रहा था। फिर मैंने उत्सुक होकर उस से पूछा,क्या तुमने कभी माओवादियों का सामना किया है? क्या इस क्षेत्र में उनकी आवाजाही है? वह मेरी जिज्ञासा में छिपे डर को सायद समझ चूका था।

सायद इसलिए उसने मुझे इस इलाके में कई माओवादियों की कहानियां सुनाना शुरू कर दिया। एक के बाद एक कहानी मुझे लगातार बताता गया । उनमें से एक यह था कि वह एक बार पंजाब से एक डीआईजी को ले कर जा रहा था। तभी कुछ आदिबासी जो की असल में माओबादी थे उनके सामने आये। वे तेलुगु में बात कर रहे थे, जैसा कि श्रीनु  खुद तेलगु होने के कारन उनकी भाषा को समझते था । माओबादियों ने श्रीनु  को डी आई जी के बारे में पूछा तो श्रीनु ने उन्हें तेलगु में बताया की वो पंजाबी ऑफिसर एक टूरिस्ट हैं यहाँ घूमने आये हैं। इसीबीच अधिकारी ने अपना पुलिस का कार्ड निकल लिया तो श्रीनु ने उसे जोर से झटक दिआ। कार्ड गाडीमें हि निचे गिरा। ऑफिसर श्रीनु  के ऊपर नाराज हुए ,उसने इसकी परबाह किये बिना ही गाडी को आगे बढ़ा दिया। श्रीनु  को पता था की आसपास बहुत सारे माओबादी छुपे हुए थे। उसकी स्टोरी में एक बच्चे की तरह चुपचाप सुने जा रहीथी। फिर मैंने  उत्सुकता से उस से पूछा कि क्या उसने  माओवादियों के बारे में बाद में अधिकारी को बताया था या नहीं उस ने कहा "कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि उन्हें बिजयनगरम जाना था  मैंने उन्हें विजयनगरम छोड़ा और चला आया।

उसकी ऐसे ही कुछ डरावनी कहानी सुनते सुनते  हम सालूर घाटी पहुँच गए। सालूर घाटी लगभग 40 किमी लम्बी  है, जो विजयनगरम जिले के सालूर निर्वाचन मंडल के कोनाबालासा से सुरु होती है और कोरापुट के पटांगी  ब्लॉक में खत्म होती  है। कई बार मैंनेइस घाटी से आना जाना किया है। पर पता नहीं इस बार क्यों थोड़ा सा डर लग रहा था। मुझे पता था की इस इलाके में माओबादी सक्रिय हैं। बारिश रुक ही नहीं रहीथी।मैंने श्रीनु  से पूछा यहाँ माओबादी बहुत ज्यादा हैं न ?क्या लोगों को रोकते हैं ?श्रीनु  पहले  तो चुप  हो गया फिर कहा, ऐसा नहीं है ,हाँ कभी कभी आदिबासी गाडिओं को रोक लेते हैं।  में हैरान और परेसान  थी। मन में तरह तरह के बुरे ख्याल भी आने लगे थे। अगर माओबादी यहाँ आगये तो क्या करेंगे ? "क्या होगा अगर वे हमें रोक दें?" मैंने एक स्वर में कई सवाल उस से पूछे।  श्रीनु  थोड़ा गंभीर था और कहा दीदी मैं  हूँ ना इतना डरो मत, मैं आपको  सुरक्षित रूप से कोरापुट ले जाऊंगा। उसका इतना कहना  था की मैंनेअचानक से देखा सामने कुछ लोग लाठी लिए खड़े हैं। उन्होंने हमारी गाडी रोक दी।  श्रीनु  ने कार रोक दी और तेलुगु में उन लोगों के साथ कुछ बातचित की । मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस उनके चेहरे के हाब भाब को देख कर कुछ समझने की कोशिश कर रही थी।  पाँच  मिनट बातचीत के बाद , उन्होंने हमें आगे बढ़ने के लिए कहा। हम सालूर  और सुंकि घाटियों को पार करते हुए लगभग 8.30 बजे कोरापुट पहुँचे।मैंने रास्ते में श्रीनु  को पूछा उन लोगो के बारे में  तो श्रीनु  बात को ये कहकर टाल गया की वो लोग आदिवासी हैं और गांव में चल रहे त्यौहार के लिए चन्दा मांगने ए थे। मेरा पत्रकारिता दिमाग इसको मानने के लिए तैयार न था। क्यों की मैंने आदिबासियों पर काफी काम किया हैं। इस समय उनका कोई त्यौहार नहीं होता। फिर भी मैंने चुपचाप श्रीनु  के बातों का खंडन नहीं किया।

मेरे लिए  गेस्टहाउस में एक रूम बुक था । मैंने वहां चेक इन किया और कमरे में फ्रेश होने चली  गयी । मैं जल्द ही फील्ड के लिए निकल रहीथी । मेरी लाला के साथ फोन पर थोड़ी बात भी  हुई, मुझे लगा कि वह फील्ड में जाएगा  मेरे साथ पर उसने मुझ से कहा की मुझे अकेले फील्ड पर जाना पड़ेगा क्यों की लाला की बहुत साड़ी मीटिंग्स थी।  "मैंने ट्रैवेल वाला से कहा कि आपको एक अच्छा ड्राइवर दे जो इलाके और गांवों के बारे में जानता हो, चिंता मत करो " लाला ने ये कह कर फ़ोन रख दिआ । उसके बाद मैं जल्दी से तैयार हो गयी  और रिसेप्शन में आयी  मैंने देखा कि श्रीनु  वहाँ पहले से ही बैठा है। हम दोनों फिलेद के लिए निकल पड़े। मुझे पटांगी के बहुत सारे गांव जाने थे। मैंने उनसे बस इतना पूछा, "क्या तुमने ये सभी गाँव देखे है ?" उसने  हाँ में  सिर हिलाया। रस्ते पर आपस में कोई बात चित नहीं हुई थी हमारे बिच क्यों की में सारे रस्ते में सिर्फ अपने कबरेज के बारे में ही सोच रहीथी। उस दिन हमने सिर्फ पांच गाओं घूमे। श्रीनु  हमेशा मेरे साथ साथ ही रहा।  मैंने अपना छोटा वीडियो कैमरा साथ ले लिया था , अकेले शूट करना थोड़ा मुश्किल था, इसलिए उसने मेरा बैग पकड़ा ,बूम माइक भी पकड़ता था।  मैं उस दिन बहुत व्यस्त रही , शाम को बारिश के मौसम की बजह से   जल्दी अंधेरा हो रहा था मैं लगभग सात बजे फिल्ड से निकल पड़ी सुबह से ठीक से कुछ खाया पिया भी नहीं था  मैंने। में पूरी तरह से थक चुकी थी।

बड़े जोरोकि भूख लगथी। भूख से मन हटाने को मैंने श्रीनु  से बात करना सुरु किया। उसके परिबार के बारे में पूछा। श्रीनु  ने बड़े सहज से जबाब में बोला "दीदी

 मैं दीदी मैं पहले  विजय नगरम में गाड़ी चला रहा था, मेरे पिता की तबियत ख़राब होने के कारण में कुछ ही महीने हुए यहाँ आया हूँ। अपने बारे में वो कुछ और बता पाता की मुझे एक फ़ोन आया। फ़ोन कोरापुट के एस पि साहब का था सबेरे मैंने उन्हें फ़ोन कियाथा पर उन्होंने फ़ोन उठाया नहीं था इसीलिए कॉलबैक किया था। उस समय कोरापुट के एस पि साहब मेरे परिचित थे इसीलिए मैंने  उन्हें सूचित करने को फ़ोन किया था । एस पि साहब ने मेरा हालचाल पूछा ,मैं कोरापुट में हूँ जानकर खुश हो गए और मुझे चाय पे भी बुलाया। हम कोरापुट पहुंच चुके थे। में जैसे ही गाडी से उतरी तो श्रीनु  ने  मुझ से पूछा दीदी क्या आप किसीसे मिलने जाने बाली हैं ?मैंने कहा ,हाँ , में  एस पि साहब को मिलने जाउंगी ,वो मेरे मित्र हैं। श्रीनु  थोड़ा गंभीर हो कर मुझे कहा दीदी आज मत जाइये ,मेरा कुछ काम है, मैं घर जाऊंगा जल्दी। आप अपना सब काम ख़तम करने के बाद हम परसों चलेंगे। मुझे उसकी बातों पर गुस्सा आरहा था। एक तो वो हमारी बातें सुन रहा था ,दूसरा वो होता कौन है ये फैसला करने वाला की में किस से मिलने जाऊँ या न जाऊँ। में अपने गुस्से को काबू करके अपने रूम मैं चली गयी। अगले दिन मुझे सबेरे सबेरे ही निकलना था।

 

जब मैं तैयार  होकर  साढ़े छह बजे नीचे आयी तो देखा कि श्रीनु रिसेप्शन पर  था । में चुपचाप जाकर कार में बैठ गयी। हमें जो गाओं जाना था उनका पता मैंने श्रीनु  को दे दिया था। मैं  वहां के कुछ स्वेच्छासेबियों से बात कर रहीथी। इसीबीच श्रीनु  ने मुझ से बात करनी चाही तो में रूखे शब्दों में उसे कहा की बाद में बात करते हैं क्यों की अभी काम का प्रेस्सर है। श्रीनु  बिचारा चुप हो गया।  उस दिन भी उसने  बहुत मदद की। शाम के सात बज रहे थे और रस्ते में हमारी इकलौती कार चल रही थी। इस इलाके में माओबादी के डर से  शाम छह बजे के बाद जिंदगी मानो थम सी जाती है। पहाड़ी इलाका , अंधेरा के साथ साथ  बारिश  भी हो रही थी  जहां तक रोशनी जाती थी , बस  जंगल दिखाई दे रहा था।  मेरे मन में एक अनजाना डर था , श्रीनु को लेकर  नहीं, माओवादि को लेकर।  क्योंकि इन दो दिनों में, श्रीनु ने एक छोटे भाई की तरह व्यवहार किया था।  फिर से डरावने ख्याल आने लगे थे मन में, जैसे की माओवादी दिखाई देने पर हम क्या करेंगे? हालांकि माओवादि पत्रकारों को नुकसान पहुंचाने का कोई रिकॉर्ड नहीं था, पर फिर भी अगर किस्मत  खराब हो तो क्या किया जा सकता है?

शायद श्रीनु  को मेरे डर का एहसास हुआ, उन्होंने पूछा, "क्या आप डर रही हो, दीदी? मैंने अपने डर को छुपाते हुए कहा ,नहीं तो । श्रीनु  फिर से कहने लगा । "दीदी, कल आप सायद  नाराज़ हो गयी क्यों की मैंने आपको एसपी साहब से उस दिन मिलने को मना किया। बात ये है की इस  इलाके में आजकल बहुत सारे माओवादी हैं, पुलिस भी माओवादियों पर नकेल कस रही है। माओवादी मुख्य रूप से पुलिस को निशाना बना रहे हैं। उनके मुखबिर सहर में भी होंगे ।उनको अगर ये भनक भी लगी की आप पुलिस की कोई रिस्तेदार या दोस्त हैं ,तो आपके लिए परेशानी हो सकती है क्यों की हमें जंगल के कई गावों  जाना है। इसी लिए मना कर रहा था की अभी मत जाईये। कल हमारा काम ख़तम होने के बाद आप उनसे मिल लेना। क्यों की परसों तो हमें सिर्फ सहर में ही काम हैं गांव तरफ जाना नहीं है। मैं बच्चों की तरह उसकी बात पर सर हिला कर हां कहा। मन ही मन सोच रहीथी की बिचारा मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित है और मैं उसे गुस्सा कर रहीथी। कुछ समय की चुप्पी के बाद फिर से उसने पूछा "दीदी क्या आप डर रही हो ?आप डरिये मत में हूँ न। आप जितने दिन कोरापुट में हो ,आपकी सुरक्षा  मेरी जिमेदारी है। इसी बिच हम कोरापुट पहुँच गए थे। दूसरे दिन हम फिर से सबेरे सबेरे निकल गए गांव की और। उस दिन काम जल्दी ख़तम हो गया क्यों की हमें सिर्फ तीन ही  आदिवासी गांव घूमना था। करीबन ढाई बजे मैंने श्रीनु  को देओमाली पहाड़ जाने को  कहा। देओमाली पहाड़ १६७२ मीटर ऊँची  उड़ीसा की सबसे ऊँची चोटी है।  देओमाली में पहाड़ के ऊपर कोटिआ गांव है जहाँ कुटिआ जनजाती रहते हैं। मुझे ये जगह बहुत ही पसंद है। मैं जब भी कोरापुट आती हूँ यहाँ आना नहीं भूलती  हूँ। श्रीनु  का मन तो नहीं था पर मेरे आग्रह पर मुझे लेकर गया। हम जब वहां पहुंचे तो करीबन साढ़े चार बज चुके थे। आदिवासी  सब काम काज ख़तम कर के सलप (एक तरह की देसी शराब ) पि कर मस्त थे। मैंने देखा की घर के सामने गांजा के पत्ते सुख रहे थे। इस इलाके में गांजे ,और भांग की खेती होती है ये मुझे पता था। में ने झट से जैसे उसे अपने कैमरे में कैद करना चाहा तो अचानक से कुछ लोग मेरे चारो तरफ घेर गए। वे उस गांव में रहने वालों से थोड़े अलग दिख रहे थे पहनावे से। वे मुझे कैमरा बंद करने को कहा। मैंने जब श्रीनु  के तरफ देखा तो श्रीनु  ने भी मुझे इसारा कर दिया। मैंने अपना कैमरा बंद किया। श्रीनु  उन लोगों से बातचित  कर रहा था और में कोटिआ गांव में कुछ आदिवासीयों से बात चित करने लगी कुछ समय के बाद हमें एक शिक्षक दिखे। उनके साथ मेरी बहुत बातचित हुई बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा "यहाँ माओबादी आतेहैं या नहीं "? उन्होंने बताया की शाम के वक्त यहाँ माओबादियों का आना जाना सुरु हो जाता है। वे किसीको कुछ नुकसान नहीं पहुंचाते। ये जगह आंध्रप्रदेश के सीमा पर है। ऊँची पहाड़ी में होने की बजह से यहाँ कोई आताजाता नहीं। निचे अगर कोई गाडी दिख गयी तो वे सिमा पार करके पहाड़ों से होते हुए उस पार चले जाते है। इसीबीच में ने देखा की वो पाँच लोग जो मुझे फोटो खींचने से मना कर रहे थे वहां से गायब हो चुके थे।

मैं उन लोगों के बारे में पूछने लगी तो श्रीनु  ने मुझे वहां से जल्द से जल्द निकलने को कहा और वो जाकर गाडी स्टार्ट करने लगा। मेरा खोजी दिमाग वहां से जाने को तैयार नहीं था पर दिन ढल गया था और अँधेरा होने को था इस लिए अपने सवाल अपने मन में रख कर में गाडी में आकर बैठ गयी। हम कोरापुट की तरफ निकल पड़े। कोटिआ गांव में मुझे पता नहीं क्यों लग रहा था जैसे कोई हम लोगों पे नज़र  रखे हुए था। मैंने रस्ते पर श्रीनु  को कई बार पूछा की वो लोग कौन थे ?तुमने इनसे क्या बातें की ?अचानक से वे कहाँ चले गए ?पर श्रीनु  हर बार बात को टाल गया ये कहा कर की दीदी आपको पता है न वे आंध्र की सिमा में है ये गांव इस लिए उधर से लोग आते रहते हैं। हम साढ़े सात बजे रात को कोरापुट पहुँच गए। मुझे एस पि सर से भी मिलने जाना था। श्रीनु  मुझे वहां लेकर गया। मैंने सर के घर पे चायपानी पीकर भाभी से भी मिली। कुछ देर बात चित करने के बाद में वहां से निकली और होटल पहुंची। दूसरे दिन हमें गांव नहीं जाना था सिर्फ कोरापुट में ही कुछ लोगो का इंटरभ्यू लेना था। दूसरे दिन सबेरे मैंने कुछ इंटरभ्यू करने के बाद मेरे कुछ मित्रों से मिली। श्रीनु  साथ ही था। काम ख़तम करके होटल से मेरा लगेज लेकर श्रीनु  मुझे स्टेशन छोड़ने आया। ट्रेन आने में देरी थी इस लिए हम दोनों स्टेशन पर बैठे थे उसने मेरे लिए पानी और फ्रूटी लाकर दिया। मैंने उसको पैसे दिए तो लेने से इनकार करने लगा। कहने लगा  की आप मेरी बड़ी बहन जैसी हो पैसा कैसे ले सकता हूँ। लेकिन जबरन मैंने उसके पॉकेट में ३०० रूपया रख दिआ। इस से पहले वो ना  नुकुर करता मैंने कहा की दीदी कहते हो और दीदी की बात नहीं मानते ? रखलो तुम मिठाई खरीद कर खा लेना। इसी बिच ट्रेन आगयी उस ने मेरा सामान ट्रेन में रखा और में अंदर जाकर बैठ गयी। मैंने उसे कहा श्रीनु  तुम अब चले जाओ ,और कितनी देर यहाँ रुकोगे। में चली जाउंगी। मैंने देखा श्रीनु  ट्रेन के बहार ही खड़ा रहा। मुझे लगा की वो मुझसे कुछ कहना चाहता है। मैंने बड़े प्यार से पूछा क्या बात है श्रीनु  कुछ कहना है तुम्हे ?मेरे इतने पूछने पर उसने कहा दीदी एक बात करनी थी आपसे ,आप प्लीज गुस्सा मत होना। दीदी पारबतीपुरम ,और सालूर घाटी मैं मिले थे ,जिन्होंने हमें रोका था, वे सब माओबादी थे। देवमाली में भी वो पांच माओबादी ही थे। आप डर जाओगी सोच कर मैंने आपको नहीं बताया था उस वक्त।

में चुप चाप सुन रहीथी थोड़ा झटका जरूर लगा उसकी बातों से पर मुझे बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि एक पत्रकार होने के नाते ये  मुझे भी संदेह था की वो लोग माओबादी हैं। में उसकी बात पर कुछ प्रतिक्रिया दे पाती ,इस से पहले ट्रेन अपनी रफ़्तार पकड़ रही थी । श्रीनु  ट्रेन की  खिड़की की रेलिंग पकड़ कर साथ साथ भाग रहा था। उसने फिर कहा  दीदी और एक बात है जो आपसे कहनी है। दीदी, मैं भी एक  माओवादी हूं.. इस से पहले में उस की बातों पर प्रतिक्रिया दे सकूँ ट्रेन अपनी रफ़्तार पकड़ चुकी थी। मैंने देखा श्रीनु  हाथ जोड़े स्टेशन पर खड़ा हुआ था। धीरे धीरे वो मेरी आँखों से ओझल होने लगा। ट्रेन आगे बढ़ रही थी मेरे मन में श्रीनु  को लेकर कई सवाल थे।

वह अगर एक माओवादी है, तो वह फिर यहाँ कैसे है? वह संगठन छोड़कर क्या यहां काम कर रहा है या वह संगठन के लिए जासूसी कर रहा है ? ऐसे कई सारे सवाल अपने जेहन में लेकर में भुबनेश्वर आ गयी।

इस घटना के बाद में कई बार कोरापुट गयी हूँ पर मुझे श्रीनु कहीं नहीं दिखा। कुछ ड्राइवर से श्रीनु  के बारे में पता करने की कोशिश भी की पर उसके बारे में किसीको कुछ भी नहीं पता था । कई साल बीत  चुके हैं  श्रीनु   के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है।  वो जिन्दा भी है या नहीं मुझे पता नहीं। सबकी नज़र में वो माओबादी है पर मेरे लिए वो मेरा छोटा भाई जैसे है।   

 

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